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मंगलवार, 27 नवंबर 2012

मैनपुरी की तारकशी कला

मैनपुरी की तारकशी कला

मैनपुरी का देवपुरा मोहल्ला…..तंग गलियों में  हथौडी की चोट की गूंजती आवाज़…..को पकड़ते हुए जब चलना शुरू कर देंगे तो एक सूने से लकड़ी के दरवाज़े के खुलते ही एक ऐसी बेमिसाल कला का दीदार होगा जिसे तारकशी कहते है.पूरी दुनिया में तारकशी कला का मैनपुरी ही एक मात्र केंद्र है.इस कला की शुरुआत कैसे हुयी ये कहना मुश्किल है.लेकिन हिंदुस्तान में जब ब्रितानी हुकमत का सिलसिला शुरू हुआ तो तारकशी सात समन्दर पार पहुंच गयी. हिंदुस्तान से सीधे इस कला को पहचान नहीं मिली. यूरोप के देशो में इस कला को जबरदस्त लोकप्रियता हासिल हुयी.18 वी सदी में तारकशी के चाहने वाले पुरी दुनिया में हो गए.लेकिन अफ़सोस मैनपुरी में तारकशी की कला दम तोडती नजर आ रही है.कद्रदान होने के बाद भी इस कला को अपनाने वालों की कमी…..इस कला के वजूद  के लिए खतरा बन गयी है.
मैनपुरी की भोगोलिक स्थिति के चलते तारकशी मैनपुरी की पहचान बनी.मैनपुरी में शीशम के पेड़ अधिक है.शीशम की लकड़ी अधिक मजबूत होती है.इसलिए इस लकड़ी का हमारे दैनिक कार्यों में सबसे अधिक प्रयोग है.चूँकि तारकशी लकड़ी पर की जाने वाली एक तरह की नक्काशी कला है जो धातु के तारो से की जाती है.इसके लिए लकड़ी को खास तरह से तैयार किया जाता है जो एक जटिल और लम्बी प्रक्रिया है.इस कला का सबसे पहले जिक्र 1864 में अस्सिटेंट कलक्टर फेडरिक सीमन ग्राउस ने किया था.ग्राउस ने अपने कई संस्मरणों में तारकशी का जिक्र किया है.ग्राउस इस कला से बेहद मुत्तासिर थे.चौहन वंश की एक शाखा जब मैनपुरी आई तो उनके साथ एक ओझा परिवार भी आया.जो काष्ठकला में माहिर था.इस परिवार की बनायीं हुयीं कई चीजें लखनऊ मूजियम में रखीं है.
 
एक समय था जब मैनपुरी के हर घर में तारकसी की झलक मिलती थी.प्रसिद्ध इतिहासकार परसी ब्राउन ने भी इस कला का ज़िक्र किया है.आज़ादी के बाद तारकशी से बनायीं गयी शीशम की लकड़ी से निर्मित काष्ठ हाथी की प्रतिमा शिल्पकार रामस्वरूप ने राष्ट्रपति को भेंट की.मैनपुरी में रामस्वरूप ने इस कला को जीवित रखने में विशेष योगदान दिया.मोहल्ला देवपुरा में बना उनका कच्चा – पक्का मकान उनकी कला की झलक आज भी पेश करता है.  शीशम की प्लेट पर बनी तारकशी की आकृति कला कृतियाँ उपहार में देने का चलन है.रथों का प्रयोग इतिहास से मिलता है.तेजगति से चलने वाले रथ और मंझोली के पहिया तारकशी कला का शानदार उदाहरण है.

आधुनिकता और पेड़ों की अँधा धुंध कटाई से तारकशी कला का नुकसान हुआ है.भवन निर्माण में लोहे का अधिक् प्रयोग के चलते अब घरों में इस कला को जगह नहीं मिल पा रही है.सरकार को चाहिए की इस शानदार कला को जीवित रखने के लिए असरदार कदम उठाए.

सोमवार, 26 नवंबर 2012

26/11 की चौथी बरसी पर शहीदों को नमन



केवल सैनिक ही नहीं ... हर एक इंसान जिस ने उस दिन ... 'शैतान' का सामना किया था ... नमन उन सब को !

जय हिन्द !!!

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

मनाएँ एक शुभ और सुरक्षित दीपावली

दीपावली के अवसर पर बच्चें पटाखों को लेकर बहुत उत्साहित रहते हैं। लेकिन पटाखे जलाते समय विशेष सावधानी की जरूरत होती हैं नही तो खुशियों और उजाले के इस त्यौहार को अंधेरे में बदलने में देर नही लगती, आइये हम इन सब बातों को ध्यान रखकर एक सुरक्षित दीपावली मनाएं-
- पटाखों को हमेशा खुली जगह पर ही जलाएं।
- पटाखे हाथ में लेकर न जलाएं। इससे दुर्घटना का खतरा रहता है।
- बहुत से पटाखे और बम धीरे-धीरे आग पकड़ते हैं। इन्हें एक बार आग लगाने के बाद इनके पास दोबारा न जाएं।
- बच्चे जब पटाखे जलाएं तो उनके आसपास ही रहें। हमेशा अपनी देखरेख में ही बच्चों को पटाखे जलाने दें। साथ ही बच्चों को बड़ी साइज के पटाखे और अन्य सामग्री न जलाने दें।
- इस बात का ध्यान रखें कि बच्चे पटाखे जलाते समय शरारत न करें। मसलन जलती हुई फुलझड़ी को इधर-उधर घुमाना आदि।
- पटाखे और बम आदि को किसी डिब्बे में रखकर न जलाएं। इससे बड़ी दुर्घटना होने की संभावना रहती है।
- पटाखे जलाते समय कभी भी उनके ऊपर झुकें नहीं।
- पटाखों को हमेशा सुरक्षित स्थान पर रखें अर्थात ऐसी जगह पर रखें जहां छोटे बच्चों की पहुंच न हो।
- पटाखे जलाते समय कभी भी बहुत ढीले-ढाले कपड़े न पहनें। हमेशा चुस्त कपड़े ही पहनें।
- आतिशबाजी का मजा लेते समय सिंथेटिक कपड़े न पहनें, सूती कपड़े ही पहनें।
- बहुत तेज आवाज वाले पटाखे और बम का प्रयोग न करें। ये आपके सुनने की क्षमता कम कर सकते हैं।

बस इन चंद बातों का ख्याल रखें और मनाएँ एक शुभ और सुरक्षित दीपावली !

आप सभी को शुभ और सुरक्षित दीपावली की बहुत बहुत हार्दिक मंगलकामनाएँ  और बधाइयाँ ! 

शनिवार, 10 नवंबर 2012

'बंगाल के निर्माता' - सुरेन्द्रनाथ बनर्जी

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी  (जन्म- 10 नवम्बर, 1848 कलकत्ता; मृत्यु- 6 अगस्त, 1925 बैरकपुर,कलकत्ता) प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी थे, जो कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष चुने गए। उन्हें 1905 का 'बंगाल का निर्माता' भी जाता है। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय समिति की स्थापना की, जो प्रारंभिक दौर के भारतीय राजनीतिक संगठनों में से एक था और बाद में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता बन गए।

जीवन परिचय

जन्म और परिवार

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का जन्म 10 नवम्बर 1848 को बंगाल के कोलकाता शहर में, एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के पिता का नाम डॉ. दुर्गा चरण बैनर्जी था और वह अपने पिता की गहरी उदार और प्रगतिशील सोच से बहुत प्रभावित थे। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने पैरेन्टल ऐकेडेमिक इंस्टीट्यूशन और हिन्दू कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद, उन्होंने रोमेश चन्द्र दत्त और बिहारी लाल गुप्ता के साथ भारतीय सिविल सर्विस परीक्षाओं को पूरा करने के लिए 1868 में इंग्लैंड की यात्रा की। 1868 ई. में वे स्नातक बने, वे उदारवादी विचारधारा के महत्वपूर्ण नेता थे। 1868 में उन्होंने इण्डियन सिविल सर्विसेज परीक्षा उतीर्ण की। इसके पूर्व 1867 ई. में सत्येन्द्रनाथ टैगोर आई.सी.एस. बनने वाले पहले भारतीय बन चुके थे। 1877 में सिलहट के सहायक दण्डाधिकारी के पद पर उनकी नियुक्त हुई परन्तु शीघ्र ही सरकार ने उन्हे इस पद से बर्खास्त कर दिया।

जातीय भेद-भाव

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने स्नातक होने के बाद इण्डियन सिविल सर्विस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) में प्रवेश के लिए इंग्लैण्ड में आवेदन किया। उस समय इस सेवा में सिर्फ़ एक हिन्दू था। बनर्जी को इस आधार पर शामिल नहीं किया गया कि उन्होंने अपनी आयु ग़लत बताई थी। जातीय आधार पर भेद-भाव किये जाने का आरोप लगाते हुए बनर्जी ने अपनी अपील में यह तर्क प्रस्तुत किया कि हिन्दू रीति के अनुसार उन्होंने अपनी आयु गर्भधारण के समय से जोड़ी थी, न कि जन्म के समय से और वह जीत गए। बनर्जी को सिलहट (अब बांग्लादेश) में नियुक्त किया गया, लेकिन क्रियान्वयन सम्बन्धी अनियमितताओं के आरोप में उन्हें 1874 में भारी विवाद तथा विरोध के बीच हटा दिया गया। उन्होंने तब बैरिस्टर के रूप में अपना नाम दर्ज़ कराने का प्रयास किया, किन्तु उसके लिए उन्हें अनुमति देने से इनकार कर दिया गया, क्योंकि वे इण्डियन सिविल सर्विस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) से बर्ख़ास्त किये गये थे। उनके लिए यह एक क़रारी चोट थी और उन्होंने महसूस किया कि एक भारतीय होने के नाते उन्हें यह सब भुगतना पड़ रहा है।

कार्यक्षेत्र

इण्डियन एसोसियेशन की स्थापना


बैरिस्टर बनने में विफल रहने के बाद 1875 ई. में भारत लौटने पर वे प्रोफ़ेसर हो गये; पहले मेट्रोपालिटन इंस्टीट्यूट में (जो कि अब विद्यासागर कॉलेज कहलाता है) और बाद में रिपन कॉलेज (जो कि अब सुरेन्द्रनाथ कॉलेज कहलाता है) में, जिसकी स्थापना उन्होंने की थी। अध्यापक के रूप में उन्होंने अपने छात्रों को देशभक्ति और सार्वजनिक सेवा की भावना से अनुप्राणित किया। मेजिनी के जीवन और भारतीय एकता सदृश विषयों पर उनके भाषणों ने छात्रों में बहुत उत्साह पैदा किया। राजनीति में भी भाग लेते रहे और 1876 में इण्डियन एसोसिएशन की स्थापना तथा 1883 में कलकत्ता में प्रथम अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने में प्रमुख योगदान दिया।

राष्ट्रीय एकता का प्रयास

अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन एक राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की दिशा में यह पहला प्रयास था। 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इण्डियन नेशनल कांग्रेस) की स्थापना के बाद उन्होंने अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (आल इंडिया नेशनल काफ़्रेंस) का उसमें विलय कराने में प्रमुख भाग लिया और उसके बाद से उनकी गिनती कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में होने लगी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1895 में पूना में हुए ग्यारहवें अधिवेशन और 1902 में अहमदाबाद में हुए अठारहवें अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने देशव्यापी भ्रमण कर बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण करते हुए राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता और देश के प्रशासन में भारतीयों को अधिक जनमत को जाग्रत करने में बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने 1878 ई. के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के विरोध का नेतृत्व किया और इल्बर्ट बिल के समर्थन में प्रमुख भाग लिया। कांग्रेस के सूरत विभाजन के समय बनर्जी नरम दल के सदस्य थे। 1909 ई. के मार्ले-मिण्टों सुधार के लिए उन्होंने अंग्रेज़ी साम्राज्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट की, किन्तु वे बंग-भंग की समाप्ति चाहते थे। 1913 ई. में उन्हें बंगाल लेजिस्लेटिव काउंसिल ओर इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल का सदस्य चुना गया। 1919-20 ई. कें गांधी प्रणीत आंदोलन का उन्होंने समर्थन नहीं किया। 1921 ई. में अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि दी। 1921-23 ई. में बंगाल सरकार में मंत्री रहे।

बंगाल विभाजन

उन्होंने कर्जन द्वारा पास किये गये कानून कलकत्ता अधिवेशन ऍक्ट, विश्वविद्यालय ऍक्ट एवं बंगाल विभाजन के विरुद्ध बंगाल एवं पूरे भारत में तीव्र आंदोलन चलाए। किन्तु बंग-विभाजन विरोधी आंदोलन में वे तोड़-फोड़ तथा असंवैधानिक तरीकों के विरुद्ध थे। बंगाल विभाजन के बारे में उन्होंने कहा ‘बंगाल का विभाजन हमारे ऊपर बम की तरह गिरा है। हमने समझा कि हमारा घोर अपमान किया गया है।’ स्वदेशी के बारे में उनका विचार था कि ‘स्वदेशी हमें दुर्भिक्ष, अन्धकार और बीमारी से बचा सकता है। स्वदेशी का व्रत लीजिए। अपने विचार, कर्म और आचरण में स्वदेशी का उपभोग करें।’ उक्त क़ानून पास हो जाने पर उन्होंने कार्पोरेशन में भाग लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने बंगाल के विभाजन का भी घोर विरोध किया और उसके विरोध में ज़बर्दस्त आंदोलन चलाया, जिससे वे बंगाल के निर्विवाद रूप से नेता मान लिये गये। वे बंगाल के बिना ताज़ के बादशाह कहलाने लगे। बंगाल का विभाजन 1911 में रद्द कर दिया गया, जो सुरेन्द्रनाथ की एक बहुत बड़ी जीत थी। लेकिन इस समय तक देशवासियों में एक नया वर्ग पैदा हो गया था, जिसका विचार था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वैधानिक आंदोलन विफल सिद्ध हुए और भारत में स्वराज्य प्राप्ति के लिए और प्रभावपूर्ण नीति अपनाई जानी चाहिए।

सिद्धान्तवादी व्यक्ति

नया वर्ग, जो गरम दल कहलाता था, हिंतात्मक तरीक़े अपनाने से नहीं डरता था, उससे चाहे क्रान्ति ही क्यों न हो जाये। लेकिन सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का, जिनकी शिक्षा-दीक्षा अठारहवीं शताब्दी के अंग्रेज़ साहित्य, विशेषकर बर्क के सिद्धान्तों पर हुई थी, क्रान्ति अथवा क्रान्तिकारी तरीक़ों में कोई विश्वास नहीं था और वे भारत तथा इंग्लैंड के बीच पूर्ण अलगाव की बात सोच भी नहीं सकते थे। इस प्रकार सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को, जिन्हें कभी अंग्रेज़ प्रशासक गरम विचारों का उग्रवादी व्यक्ति मानते थे, अब स्वयं उनके देशवासी नरम दल का व्यक्तित्व मानने लगे थे। सूरत कांग्रेस (1907) के बाद वे कांग्रेस पर गरम दलवालों का क़ब्ज़ा होने से रोकने में सफल रहे थे। किन्तु इसके बाद शीघ्र ही कांग्रेस गरम दल वालों के नियंत्रण में चली गई। इसका परिणाम यह हुआ कि माण्टेग्यू चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट के आधार पर जब 1919 का गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट पास हुआ तो सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने उसे इस आधार पर स्वीकार कर लिया कि कांग्रेस अपने आरम्भिक दिनों में जो मांग कर रही थी, वह इस एक्ट से बहुत हद तक पूरी हो गई है, लेकिन स्वयं कांग्रेस ने उसे अस्वीकार कर दिया।

कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद

इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का सम्बन्ध विच्छेद हो गया। उन्होंने कांग्रेस के अन्य पुराने नेताओं के साथ लिबरल फ़ेडरेशन की स्थापना की जो अधिक जन समर्थन प्राप्त नहीं कर सका। फिर भी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी नई बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य निर्वाचित हो गये। 1921 ई. में कलकत्ता म्युनिसिपल बिल को विधानमंडल से पास कराया, जिससे लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बनाया गया पूर्ववर्ती क़ानून निरस्त हो गया और कलकत्ता कार्पोरेशन पर पूर्ण रूप से लोकप्रिय नियंत्रण स्थापित हो गया।

भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माता

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन जिसकी 1876 ई. में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने शुरुआत की थी, इस समय तक बहुत विकसित हो गया था और देश के लिए क़ानून बनाने तथा देश के प्रशासन में अधिक हिस्सा दिये जाने की जिन माँगों के लिए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने पचास वर्षों से भी अधिक समय तक संघर्ष किया था, उन माँगों की पूर्ति से अब देशवासी संतुष्ट नहीं थे। वे अब स्वाधीनता की माँग कर रहे थे, जो सुरेन्द्रनाथ की क्लपना से परे थी। उनकी मृत्यु जिस समय हुई उस समय उनकी गिनती देश के लोकप्रिय नेताओं में नहीं होती थी, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वे आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता के निर्माताओं में से थे, जिसकी स्वाधीन भारत एक देन है।

मृत्यु

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी 1920 ई. में शुरू किये गये असहयोग आंदोलन से सहमत नहीं थे। फलत: स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में उनकी महत्त्वपूर्ण क़ानूनी उपलब्धियों के बावजूद उन्हें पहले की भाँति देशवासियों का समर्थन नहीं मिल सका। वे 1923 के चुनाव में हार गये और तदुपरान्त 6 अगस्त, 1925 में अपनी मृत्यु पर्यन्त सार्वजनिक जीवन से प्राय: अलग रहे।   

आज उन की जयंती पर सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से स्व ॰ श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !

बुधवार, 7 नवंबर 2012

स्व॰ विपिन चंद्र पाल जी की १५४ वी जयंती पर विशेष

क्रांतिकारी विचारों के जनक :- विपिन चंद्र पाल (०७/११/१८५८ - २०/०५/१९३२)
स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियाद तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाली लाल बाल पाल की तिकड़ी में से एक विपिनचंद्र पाल राष्ट्रवादी नेता होने के साथ-साथ शिक्षक, पत्रकार, लेखक बेहतरीन वक्ता भी थे और उन्हें भारत में क्रांतिकारी विचारों का जनक भी माना जाता है।
इस तिकड़ी ने 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में अंग्रेजी शासन के खिलाफ आंदोलन किया जिसे बड़े पैमाने पर जनता का समर्थन मिला। तिकड़ी के अन्य नेताओं में लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक शामिल थे।
गरम विचारों के लिए मशहूर इन नेताओं ने अपनी बात तत्कालीन विदेशी शासक तक पहुंचाने के लिए कई ऐसे तरीके इजाद किए जो एकदम नए थे। इन तरीकों में ब्रिटेन में तैयार उत्पादों का बहिष्कार, मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज, औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल आदि शामिल हैं। उन्होंने महसूस किया कि विदेशी उत्पादों की वजह से देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल हो रही है और यहां के लोगों का काम भी छिन रहा है। उन्होंने अपने आंदोलन में इस विचार को भी सामने रखा। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गरम धड़े के अभ्युदय को महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इससे आंदोलन को एक नई दिशा मिली और इससे लोगों के बीच जागरुकता बढ़ी।
गांधी स्मारक निधि के सचिव रामचंद्र राही के अनुसार राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जागरुकता पैदा करने में उनकी अहम भूमिका रही। उनका यकीन था कि सिर्फ प्रेयर पीटिशन से स्वराज नहीं हासिल होने वाला है।
रामचंद्र राही के अनुसार आंदोलन में महात्मा गांधी के शामिल होने के पहले विदेशी शासन के प्रति लोगों में जो नाराजगी एवं रोष था, वह विभिन्न तरीके से अभिव्यक्त किया जा रहा था। उन्हीं रूपों में से एक गरम दल के नेताओं का तरीका था। उसे जनता के एक बड़े वर्ग के बीच पसंद किया जा रहा था। राही के अनुसार स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियाद तैयार करने में इस तिकड़ी की प्रमुख भूमिका रही।
हालांकि बाद में महात्मा गांधी ने महसूस किया कि हिंसा या टकराव के माध्यम से शक्तिशाली ब्रिटिश शासन से निजात पाना कठिन है और उन्होंने सत्याग्रह एवं अहिंसा का रास्ता अपनाया। राही का मानना है कि गांधी युग के पहले के दौर में राष्ट्रीय आंदोलन पर इस तिकड़ी का काफी प्रभाव रहा।
७ नवंबर 1858 को अविभाजित भारत के हबीबगंज जिले में [अब बांग्लादेश में] एक संपन्न घर में पैदा विपिनचंद्र पाल सार्वजनिक जीवन के अलावा अपने निजी जीवन में भी अपने विचारों पर अमल करने वाले और स्थापित दकियानूसी मान्यताओं के खिलाफ थे। उन्होंने एक विधवा से विवाह किया था जो उस समय दुर्लभ बात थी। इसके लिए उन्हें अपने परिवार से नाता तोड़ना पड़ा। लेकिन धुन के पक्के पाल ने दबावों के बावजूद कोई समझौता नहीं किया।
किसी के विचारों से असहमत होने पर वह उसे व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते। यहां तक कि सहमत नहीं होने पर उन्होंने महात्मा गांधी के कुछ विचारों का भी विरोध किया था। केशवचंद्र सेन, शिवनाथ शास्त्री जैसे नेताओं से प्रभावित पाल को अरविंद के खिलाफ गवाही देने से इनकार करने पर छह महीने की सजा हुई थी। इसके बाद भी उन्होंने गवाही देने से इनकार कर दिया था। जीवन भर राष्ट्रहित के लिए काम करने वाले पाल का 20 मई 1932 को निधन हो गया|
सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से श्री विपिनचंद्र पाल कोशत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !

सोमवार, 5 नवंबर 2012

पहली बरसी पर विशेष - ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. . . . 
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूँ. . . . 
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. 
अनपढ़ जन अक्षरहीन अनगिन जन खाद्यविहीन निद्रवीन देख मौन हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

व्यक्ति रहित व्यक्ति केन्द्रित सकल समाज व्यक्तित्व रहित निष्प्राण समाज को छोडती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

रुतस्विनी क्यूँ न रही ? तुम निश्चय चितन नहीं प्राणों में प्रेरणा प्रेरती न क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . ..

उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी गंगे जननी नव भारत में भीष्म रूपी सूत समरजयी जनती नहीं हो क्यूँ ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार, ओ गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रगामी. . बनाती नही हो क्यूँ. . . . 
विस्तार है अपार, प्रजा दोनो पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, ओ गंगा तुम. .. ओ गंगा… बहती हो क्यूँ . .. 
 

स्व ॰ श्री हजारिका को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि ! 

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

फ़िल्मी दुनिया का 'बब्बर शेर' - सोहराब मोदी


सोहराब मोदी
सोहराब मोदी
पूरा नाम सोहराब मोदी
जन्म 2 नवम्बर, 1897
जन्म भूमि बम्बई
मृत्यु 28 जनवरी, 1984
कर्म भूमि मुम्बई
कर्म-क्षेत्र अभिनेता, निर्माता व निर्देशक
मुख्य फ़िल्में रज़िया सुल्तान, घर की लाज, कुंदन आदि
पुरस्कार-उपाधि दादा साहब फाल्के पुरस्कार
सोहराब मोदी ( जन्म: 2 नवम्बर 1897 - मृत्यु: 28 जनवरी 1984) अभिनेता, फ़िल्म निर्माता व निर्देशक थे, जिन्होंने हिन्दी की प्रथम रंगीन फ़िल्म 'झाँसी की रानी' बनाई थी। इनको सन 1980 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

जीवन परिचय

सोहराब मोदी का जन्म 2 नवम्बर 1897 में बम्बई में हुआ था। सोहराब मोदी अपनी स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद वह अपने भाई केकी मोदी के साथ यात्रा प्रदर्शक का कार्य किया। सोहराब मोदी ने कुछ मूक फ़िल्मों के अनुभव के साथ एक पारसी रंगमंच से बतौर अभिनेता के रूप में शुरुआत की थी। सोहराब मोदी ने सन 1935 में स्टेज फ़िल्म कंपनी की स्थापना की थी।

प्रमुख फ़िल्में

सोहराब मोदी की कुछ प्रमुख फ़िल्में हैं जिनमें उन्होंने बतौर अभिनेता काम किया है।
प्रमुख फ़िल्में
सन फ़िल्म नाम
1983 रज़िया सुल्तान
1979 घर की लाज
1971 ज्वाला
1971 एक नारी एक ब्रह्मचारी
1960 काला बाज़ार
1958 यहूदी
1956 राज हठ
1955 कुंदन
1950 शीश महल

पुरस्कार

सोहराब मोदी को सन 1980 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

निधन

फ़िल्मी दुनिया में 'बब्बर शेर' के नाम से प्रसिद्ध सोहराब मोदी का 28 जनवरी 1984 में निधन हो गया।

सोहराब मोदी जी को उनकी जयंती पर शत शत नमन !

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