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गुरुवार, 25 नवंबर 2010

२६/११ की बरसी पर विशेष - एक रि पोस्ट

बताओ करें तो करें क्या ...................??????

हाँ हाँ यादो में है अब भी ,
क्या सुरीला वो जहाँ था ,
हमारे हाथो में रंगीन गुब्बारे थे
और दिल में महेकता समां था ..........


वो खवाबो की थी दुनिया ..........
वो किताबो की थी दुनिया ..................
साँसों में थे मचलते ज़लज़ले और
आँखों में 'वो' सुहाना नशा था |

वो जमी थी , आसमां था ...........
हम खड़े थे ,
क्या पता था ???
हम खड़े थे जहाँ पर उसी के किनारे एक गहेरा सा 'अंधा कुआँ' था ..................

फ़िर 'वो' आए 'भीड़' बन कर ,
हाथो में थे 'उनके' खंज़र ................
बोले फैंको यह किताबे , और संभालो यह सलाखें !!!
यह जो गहेरा सा 'कुआँ' है ................
हाँ .... हाँ .... 'अंधा' तो नहीं है !!
इस 'कुएं' में है 'खजाना' ......
कल की दुनिया तो 'यही' है ....


कूद जाओ ले के खंज़र ......
काट डालो जो हो अन्दर ............
तुम ही कल के हो..............


'शिवाजी'
..........



तुम ही कल के हो ...............



'सिकंदर'
................ ||






हम ने 'वो' ही किया जो 'उन्होंने' कहा,

क्युकी 'उनकी' तो 'खवहिश' यही थी ......
हम नहीं जानते यह भी कि क्यों 'यह' किया .............

क्युकी 'उनकी' 'फरमाइश' यही थी |


अब हमारे लगा 'ज़एका' 'खून' का .........
अब बताओ करें तो करें क्या ???
नहीं है 'कोई' जो हमें कुछ बताएं ..............
बताओ करें तो करें ..............

'क्या' ??????









फ़िल्म :- गुलाल ; संगीत :- पियूष मिश्रा ; गीतकार :- पियूष मिश्रा


२६/११ के सभी अमर शहीदों को सभी मैनपुरी वासीयों की ओर से शत शत नमन !

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

सेकेंडों में करें डाटा सिंक - अब आ गया है - एमकैट फ्लैश लिंक

अगर आपको होम पीसी से पर्सनल नोटबुक में 6 जीबी गाने और डाटा ट्रासफर करना हों तो आप क्या करेंगे। निश्चित तौर पर आप पेनड्राइव का इस्तेमाल करेंगे, लेकिन अगर इसकी कैपेसिटी ही केवल 2 या 4 जीबी की हो तो आपको डाटा ट्रासफर करने में घटों लग जाएंगे, क्योंकि पेनड्राइव से डाटा सिंक करने में काफी वक्त लगता है।

अब बाजार में एक ऐसा खास गैजेट आ गया है जो घटों के काम को मिनटों में निपटा देगा। कंप्यूटर उत्पाद बनाने वाली कंपनी एमकैट ने एक ऐसी डिवाइस लॉन्च की है जो केवल फटाफट डाटा सिंक करने के लिए ही बनी है। इस डिवाइस की कीमत है 990 रुपये।

[480 एमबीपीएस रफ्तार]
एमकैट फ्लैश लिंक नाम की यह डिवाइस पीसी से नोटबुक या नेटबुक में डाटा, फाइल, फोल्डर या आउटलुक को इंस्टैंट सिंक कर सकती है। यह डिवाइस दो कंप्यूटर्स को आपस में कनेक्ट करके उनका डाटा शेयर करती है। यह पूरी तरह से बूट-फ्री और इंस्टॉल्शन-फ्री है। 256 एमबी की बिल्टइन ऑनबोर्ड मेमोरी वाली यह डिवाइस मूवीज, म्यूजिक और डॉक्यूमेंट्स को 480 एमबीपीएस की रफ्तार से ट्रासफर कर सकती है।

[क्या है खास]

[डाटा शेयरिंग]: इस डिवाइस से दो पीसी के बीच भारी से भारी डाटा सेकेंडों में ट्रासफर हो सकता है।

[इंटरनेट शेयरिंग]: इस डिवाइस की यह भी खूबी है कि अगर आपके एक पीसी में इंटरनेट कनेक्शन है तो इस डिवाइस की मदद से दूसरे पीसी पर इंटरनेट शेयर कर सकते हैं।

[सीडी-डीवीडी शेयरिंग]: बाकी सभी खूबियों के अलावा बिना नेटवर्क केबल की मदद के इस डिवाइस के जरिए एक पीसी की सीडी-डीवीडी ड्राइव को दूसरे पीसी से कनेक्ट कर सकते हैं। नेटबुक में यह काफी फायदेमंद साबित हो सकती है क्योंकि उनमें सीडी-ड्राइव नहीं होती है।

[ऑउटलुक/फोल्डर शेयरिंग]: यह ऑउटलुक डाटा को आसानी से सिंक कर सकती है, साथ ही जरूरी फोल्डर भी ट्रासफर करके उनका बैकअप ले सकती है। सुरक्षा के लिहाज से यूजर डाटा की दो कापी भी रख सकता है।

शनिवार, 13 नवंबर 2010

बाल दिवस पर विशेष :- चाचा कलाम के बचपन की कहानी ... उनकी ही जुबानी !

मैंने जिंदगी से ही सीख ली है और उससे क्रमश: आगे बढ़ना सीखा है..। बचपन बहुत ही साधारण था। मैंने मध्यमवर्गीय तमिल परिवार में (15 अक्टूबर 1931) जन्म लिया था रामेश्वरम में..। द्वीप जैसा छोटा सा शहर..प्राकृतिक छटा से भरपूर..। शायद इसीलिए प्रकृति से मेरा बहुत जुड़ाव रहा। मेरे पिता जैनुलाब्दीन न तो ज्यादा पढ़े-लिखे थे, न ही पैसे वाले थे। वे नाविक थे और बहुत नियम के पक्के थे।
हम संयुक्त परिवार में थे। पाच भाई और पाच बहनें, चाचा के परिवार भी साथ में थे। मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि घर में कितने लोग थे या मा कितने लोगों का खाना बनाती थीं। क्योंकि घर में तीन भरे-पूरे परिवारों के साथ-साथ बाहर के लोग भी हमारे साथ खाना खाते थे। घर में खुशिया भी थीं, तो मुश्किलें भी।
मेरे जीवन पर पिता का बहुत प्रभाव रहा। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी लगन और उनके दिए संस्कार बहुत काम आए..। वे चारों वक्त की नमाज पढ़ते थे और जीवन में सच्चे इंसान थे। जब मैं आठ-नौ साल का था, मैं भी सुबह चार बजे उठता। ट्यूशन पढ़ने के बाद पिता के साथ नमाज पढ़ता, फिर कुरान शरीफ का अध्ययन करने के लिए अरेशिक स्कूल जाता था। मैं उसी उम्र में काम भी करने लगा था..। रामेश्वरम के रेलवे स्टेशन जाकर अखबार इकट्ठा करता था और रामेश्वरम की सड़कों पर बेचता था और घरों में पहुंचाता था। अखबार इकट्ठा करना कठिन था। उन दिनों धनुषकोड़ी से मेल ट्रेन गुजरती थी, जिसका वहा रुकना तय नहीं था। वहा चलती ट्रेन से अखबार के बंडल प्लेटफॉर्म पर यहा-वहा फेंके जाते थे।
एक तो मैं अपने भाइयों में छोटा था, दूसरे घर के लिए थोड़ी कमाई भी कर लेता था, इसलिए मा का प्यार मुझ पर कुछ ज्यादा ही था। मुझे अपने भाई-बहनों से दो रोटिया ज्यादा मिल जाती थीं। एक घटना याद आ रही है। मैं भाई-बहनों के साथ खाना खा रहा था। हमारे यहा चावल खूब होता था, इसलिए खाने में वही दिया जाता था, हा गेहूं पर राशनिंग थी। यानी रोटिया कम मिलती थी। जब मा ने मुझे रोटिया ज्यादा दे दीं, तो मेरे भाई ने एक बड़े सच का खुलासा किया। उन्होंने अलग ले जाकर मुझसे कहा कि मा के लिए एक भी रोटी नहीं बची और तुम्हें उन्होंने ज्यादा रोटिया दे दीं। मेरे भाई ने मुझे वह अपनी जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया था। यह सुनकर मैं मा से लिपटकर फूट-फूट कर रोया..।
मैं एयरोस्पेस टेक्नोलॉजी में आया, तो इसके पीछे मेरे पाचवीं कक्षा के अध्यापक सुब्रहमण्यम अय्यर की प्रेरणा जरूर थी। उन्होंने कक्षा में बताया था कि पक्षी कैसे उड़ता है? जब मैं यह नहीं समझ पाया, तो वे सभी बच्चों को लेकर समुद्र के किनारे ले गए। उस प्राकृतिक दृश्य में कई प्रकार के पक्षी थे, जो सागर के किनारे उतर रहे थे और उड़ रहे थे। उन्होंने समुद्री पक्षियों को दिखाया, जो झुंड में उड़ रहे थे। उन्होंने पक्षियों के उड़ने के बारे में साक्षात अनुभव कराया। व्यावहारिक प्रयोग से हमने जाना कि पक्षी किस प्रकार उड़ पाता है। मेरे लिए यह सामान्य घटना नहीं थी। पक्षी की वह उड़ान मुझमें समा गई थी। बाद में भी मुझे महसूस होता था कि मैं रामेश्वरम के समुद्र तट पर पक्षियों की उड़ान का अध्ययन कर रहा हूं। उसी समय मैंने तय कर लिया था कि उड़ान में करियर बनाऊंगा। 

आशा है कि आज के दिन चाचा कलाम के बचपन की कहानी केवल बच्चो को ही नहीं हम सब को भी अपनी अपनी जिम्मेदारीयो के इमानदारी से पालन करने का पाठ सिखाएगी ! 

आप सब को बाल दिवस की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

आलेख प्रतियो्गिता - आपका ध्यान कहाँ है - जल्दी भेजिए अपनी प्रविष्टि

प्रतियो्गिता के लिए आलेख आमंत्रित है---- समय सीमा कम है----शीघ्र लेख भेजें

आज पर्यावरण की हानि होने से ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या से पूरी दुनिया को जुझना पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान सामने आ रहे हैं। हम पर्यावरण की रक्षा करें एवं आने वाली पी्ढी के लिए स्वच्छ वातावरण का निर्माण करें। पर्यावरण के प्रति जागरुक करने के लिए हम एक प्रतियोगिता का आयोजन कर रहे हैं।प्रतियोगिता में सम्मिलित होने के लिए सूचना एवं नियम इस प्रकार है।

विषय -- "बचपन और हमारा पर्यावरण"

प्रथम पुरस्कार
11000/= (ग्यारह हजार रुपए नगद)
एवं प्रमाण-पत्र

द्वितीय पुरस्कार
5100/= (इक्यावन सौ रुपए नगद)
एवं प्रमाण-पत्र

तृती्य पुरस्कार
2100/= (इक्की्स सौ रुपए नगद)
एवं प्रमाण-पत्र

सांत्वना पुरस्कार (10)
501/=(पाँच सौ एक रुपए नगद)
एवं प्रमाण-पत्र


1. इस प्रतियोगिता में 1 नवम्बर 2010 से 30 नवंबर 2010 तक आलेख भेजे जा सकते है.

2. प्रतियोगिता में सिर्फ़ दिए गए विषय पर ही आलेख सम्मिलित किए जाएंगे।

3. एक रचनाकार अपने अधिकतम 3 अप्रकाशित मौलिक आलेख भेज सकता है पुरस्कृत होने की स्थिति में  वह केवल एक ही पुरस्कार का हकदार होगा.

4. स्व रचित आलेख  1 नवम्बर 2010 से 30 नवंबर 2010 तक lekhcontest@gmail.com  पर भेज सकते हैं. कृपया साथ में मौलिकता का प्रमाण-पत्र एवं अपना एक अधिकतम १०० शब्दों में परिचय तथा तस्वीर भी संलग्न करें। नियमावली की कंडिका 7 से संबंध नहीं होने का का भी उल्लेख प्रमाण-पत्र में करें। आलेख कम से कम 500 एवं अधिकतम 1000 शब्दों में होने चाहिए।

आपसे निवेदन है कि प्रत्येक रचना को अलग अलग इमेल से भेजने की कृपा करें. यानि एक इमेल से एक बार मे एक ही रचना भेजे.

5. हमें प्राप्त रचनाओं मे से जो भी रचना प्रतियोगिता में शामिल होने लायक पायी जायेगी उसे हमारे सहयोगी ब्लाग "हमारा पर्यावरण" पर प्रकाशित कर दिया जायेगा, जो इस बात की सूचना होगी कि प्रकाशित रचना प्रतियोगिता में शामिल कर ली गई है।

6. 1 दिसंबर 2010 से प्रतियोगिता में सम्मिलित आलेखों का प्रकाशन  "हमारा पर्यावरण" पर प्रारंभ कर दिया जायेगा.

7. इस प्रतियोगिता में हमारा पर्यावरण, एसार्ड, एवं पर्यावरण मंत्रालय से संबंधित कोई भी व्यक्ति या उसका करीबी रिश्तेदार भाग लेने की पात्रता नहीं रखता।

8. इन रचनाओं पर  "हमारा पर्यावरण" का कापीराईट रहेगा. और कहीं भी उपयोग और प्रकाशन का अधिकार हमें होगा.

9. रचनाओं को पुरस्कृत करने का अधिकार सिर्फ़ और सिर्फ़ "हमारा पर्यावरण" के संचालकों के पास सुरक्षित रहेगा. इस विषय मे किसी प्रकार का कोई पत्र व्यवहार नही किया जायेगा और ना ही किसी को कोई जवाब दिया जायेगा.

10. इस प्रतियोगिता के समस्त अधिकार और निर्णय के अधिकार सिर्फ़  "हमारा पर्यावरण" के पास सुरक्षित हैं. प्रतियोगिता के नियम किसी भी स्तर पर परिवर्तनीय है.

11.पुरस्कार  IASRD द्वारा प्रायोजित हैं.

12. यह प्रतियोगिता पर्यावरण के प्रति जागरुकता लाने के लिए एवं हिंदी मे स्वस्थ लेखन को बढावा देने के उद्देश्य से आयोजित की गई है.
 
(नोट:-प्रतियोगिता में ब्लॉगर के अलावा अन्य पाठक भी भाग ले सकते हैं परन्तु प्रतियोगी की आयु 18 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए)

सोमवार, 8 नवंबर 2010

एक शुभ समाचार .....आ गया शेर !!!!!!!!

एक शुभ समाचार .....



अभी अभी पता चला है कि महफूज़ भाई की वापसी हो चुकी है !!

उन्होंने खुद बज्ज़ पर इसका खुलासा किया है ............

लीजिये आप भी देखिये .......

 
सभी की ओर से उनको इस वापसी पर बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं ! 

शनिवार, 6 नवंबर 2010

अलविदा ! वॉकमैन....

1979 में कैसेट वॉकमैन की लॉन्चिंग म्यूजिक लवर्स के लिए किसी वरदान से कम नहीं थी। वॉकमैन ने म्यूजिक सुनने का स्टाइल ही बदल दिया। पार्को में लोग इसे कानों में लगाए जॉगिंग किया करते थे। उस वक्त इसकी गिनती सबसे पॉपुलर गैजेट्स में हुआ करती थी।
लेकिन अब यह बीते दिनों की बात होने वाली है। 3 दशक और 22 करोड़ से ज्यादा यूनिट्स बेचने के बाद कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पाद बनाने वाली कंपनी सोनी इलेक्ट्रॉनिक्स ने आखिरकार कैसेट वॉकमैन को फुल स्टॉप बोल दिया है। सोनी को लगता है यह गैजेट डिजिटल एज के साथ तालमेल नहीं बैठा सकता।
कैसेट वॉकमैन के खत्म होने के पीछे सबसे बड़ी वजह है डिजिटल एमपी3 प्लेयर्स, जो न केवल साइज में काफी छोटे हैं, बल्कि उनमें हजारों गाने सेव किए जा सकते हैं। सोनी के कैसेट वॉकमैन की बिक्री कम होने लगी। जबकि 1 जुलाई 1979 को पोर्टेबल कैसेट प्लेयर की लॉन्चिंग के साथ ही सोनी इलेक्ट्रॉनिक्स दुनिया की टॉप कंपनियों में शुमार हो गई थी। लॉन्चिंग के दो महीने में ही सोनी ने कैसेट वॉकमैन की 30 हजार यूनिट्स बेच दीं और एक दशक के भीतर यह संख्या 5 करोड़ तक पहुंच गई।
जब कैसेट वॉकमैन लॉन्च हुआ तो उसे बाजार से बेहद खराब प्रतिक्रिया मिली। उस वक्त बाजार में बड़े-बड़े टेप रिकॉ‌र्ड्स छाए थे, तो दुकानदारों ने कहा कि बिना रिकॉर्डिंग मैकेनिज्म वाला कैसेट प्लेयर बाजार में कैसे हिट करेगा। कैसेट वॉकमैन के डिजाइनर और सोनी के इंजीनियर नोबूतोशी किहारा के मुताबिक, उस वक्त प्रॉडक्ट्स के डिजाइनिंग स्केच हाथ से तैयार किए जाते थे। किहारा बताते हैं कि जब वे इसे डिजाइन कर रहे थे, तो उन्होंने आखें बंद कीं और ऐसे प्रोडक्ट की कल्पना की, जो किसी जॉगर के कान पर लगा हो और उसे जॉगिंग करते वक्त कोई दिक्कत न हो।
आलेख - हरेन्द्र चौधरी

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

जहां बसे हैं भारतीय, वहां होती है दीप पर्व की रौनक


दीपों की जगमगाहट से अमावस्या की काली रात को जगमग करने वाले दीप पर्व दीवाली की धूम सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर उस देश में होती है, जहां भारतीय बसे हैं।

भारत के पड़ोसी हिमालई देश नेपाल में दीवाली को 'तिहार' या 'स्वान्ति' कहा जाता है। यहां अक्टूबर या नवंबर माह में यह पर्व पांच दिन तक मनाया जाता है और इसकी परंपराएं काफी हद तक वैसी ही हैं जैसी भारत में हैं। नेपाल में पांच दिन के तिहार में पहले दिन कौवे को दूत मानते हुए उसके लिए दाना खिलाया जाता है। दूसरे दिन कुत्ते की, वफादारी के लिए पूजा की जाती है। तीसरे दिन लक्ष्मी पूजा होती है। इस दिन गाय की भी पूजा की जाती है। यह नेपाली संवत का अंतिम दिन होता है इसलिए कारोबारी इसे खूब धूमधाम से मनाते हैं।

चौथे दिन नव वर्ष मनाया जाता है। इस दिन 'महा पूजा' होती है और ईश्वर से अच्छे स्वास्थ्य की कामना की जाती है। पांचवे दिन भाई टीका होता है, जिस दिन बहनें भाइयों की लंबी उम्र की कामन कर उसे टीका लगाती हैं।

मलेशिया में दीवाली को 'हरी दीवाली' कहा जाता है। वहां हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, साल के सातवें माह में दीवाली मनाई जाती है। इस दिन यहां सार्वजनिक अवकाश रहता है। यहां की परंपराए भी भारत जैसी ही होती हैं। सिंगापुर में परंपरागत भारतीय तरीके से 'दीपावली' मनाई जाती है। इस अवसर पर 'द हिन्दू एंडाउमेंट बोर्ड आफ सिंगापुर' सरकार के साथ मिल कर कई सांस्कृतिक आयोजन करता है।

श्रीलंका में तमिल समुदाय पूरे उत्साह से दीपावली मनाता है। सुबह सवेरे लोग स्नान कर लेते हैं। घरों के आगे रंगोली सजाई जाती है। शाम को घरों में रोशनी की जाती है और दिए जलाए जाते हैं। इसके बाद पूजा होती है और लोग एक दूसरे को मिठाई खिला कर शुभकामनाएं देते हैं। आतिशबाजी छोड़ी जाती है।

त्रिनिदाद और टोबैगो में भारतीय समुदाय के लोग दीवाली को उसी तरह मनाते हैं जिस तरह यह पर्व भारत में मनाया जाता है। न्यूजीलैंड में एशियाई मूल के लोग धूमधाम से दीवाली मनाते हैं। मुख्य आयोजन आकलैंड और वेलिंगटन में होता है। वर्ष 2003 से न्यूजीलैंड की संसद में दीवाली पर एक आधिकारिक समारोह आयोजित किया जाता है।

अमेरिका में भारतीय आबादी के बढ़ने के साथ ही दीवाली का महत्व भी बढ़ता गया। व्हाइट हाउस में पहली बार साल 2003 में दीवाली मनाई गई थी। वर्ष 2007 में कांग्रेस ने इसे आधिकारिक पर्व का दर्जा दे दिया। 2009 में व्हाइट हाउस में बराक ओबामा दीवाली में निजी तौर पर भाग लेने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बन गए।

वर्ष 2009 में भारत की तरह अमेरिका में भी काउबाय स्टेडियम में दीवाली मेला आयोजित किया गया था जिसमें करीब एक लाख लोग आए थे। इसी साल सैन अन्तोनिया आधिकारिक दीवाली महोत्सव का आयोजन करने वाला पहला अमेरिकी शहर बन गया।

आस्ट्रेलिया, कनाडा, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, इंडोनेशिया, जापान, केन्या, मारिशस, म्यामां, दक्षिण अफ्रीका, तंजानिया, थाईलैंड आदि में भी भारतीय मूल के लोग धूमधाम से दीवाली मनाते हैं।

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

दीपावली पर विशेष रि पोस्ट


जरा कल्पना कीजिये, मोमबत्ती, मिठाई व आतिशबाजी नहीं होते, तो हम दीवाली कैसे मनाते? इन तीन के बिना कितनी फीकी होती हमारी दीवाली । क्या दीवाली भी सामान्य त्योहारों की तरह ही बनकर नहीं रह जाती?
क्यों आप सोच में पड़ गए न!? चलो पता करते हैं इन तीन के बारे में कि वे सबसे पहले कब और कैसे आई? हमने कब जाना कि मिठाई जैसी कोई चीज है और आतिशबाजी या मोमबत्ती का प्रचलन किस तरह से शुरू हुआ? है न ये कुछ रोचक सवाल? ऐसे सवाल, जो शायद कभी आपके जेहन में न आए हों, पर अब इन्हें जानकर दीवाली के सेलिब्रेशन का मजा कुछ और बढ़ जाएगा।

[चीनी नहीं इंडियन साल्ट]


दीवाली पर मिठाइयों के साथ-साथ आपको चॉकलेट्स, टॉफियां भी उपहार में मिलती होंगी। पर चीनी के बिना ये चीजें होतीं क्या? शहद में यदि ये तैयार भी होती, तो शायद इसमें चीनी जैसा आनंद न होता।
चीनी पहली बार कब बनी? इसे जानने के पचड़े में हमें नहीं पड़ना, पर यह जरूर जान लें कि चीनी से पहले दुनिया ने शहद का प्रयोग किया। और जब चीनी का प्रयोग शुरू हुआ, तब यह महज दवाई के तौर पर इस्तेमाल होती थी। ग्रीक सभ्यता में चीनी सैकरोन कहलाती थी। भारत में चीनी मिलने के प्रमाण अन्य स्त्रोतों के अलावा, ग्रीक फिजिशियन डायोसोरिडस से भी मिला है। उन्होंने मध्यकाल में पंजाब क्षेत्र में मिलने वाली मीठे और सफेद नमक जैसी चीज को इंडियन साल्ट कहा था।

[आतिशबाजी का आविष्कार]


सही मायने में आतिशबाजी की परंपरा तब शुरू हुई, जब चीनियों ने बारूद का आविष्कार किया। वे इटली के व्यापारी मार्कोपोलो थे, जिन्हें चीन से यूरोप बारूद लाने का श्रेय दिया जाता है। धीरे-धीरे जब बारूद दुनिया भर में पॉपुलर हुआ, तो आतिशबाजी भी प्रत्येक उत्सव और त्योहारों का अंग बनने लगी। चीनी बौद्ध भिक्षु ली तियान को पटाखे का आविष्कारक मानते हैं। इस आविष्कारक को श्रद्धांजलि देने लिए ही वे हर वर्ष 18 अप्रैल के दिन को सेलिब्रेट करते हैं। यह जानना बड़ा रोचक है कि सदियों पहले लोग इन आवाजों के लिए हरे बांस का प्रयोग करते थे। चीन में किसी उत्सव या खास दिन को सेलिब्रेट करने के लिए लोग ढेर सारे हरे बांस के गट्ठर को आग में झोंककर दूर हट जाते और इसके थोड़ी देर बाद ही जोरदार धमाके का लुत्फ उठाते थे। बहरहाल, अभी जो आप लोग आतिशबाजी से रंग-बिरंगी रोशनी का आनंद लेते हो, पहले यह नहीं था। केवल नारंगी रंग की रोशनी ही हरे बांस के गट्ठर के जलने के दौरान नजर आती थी। वे इटली के रसायन विज्ञानी थे, जिन्होंने आतिशबाजी को रंगीन बनाया। दरअसल, इन्होंने ही लाल, हरे, नीले और पीले रंग पैदा करने वाले रसायन की खोज की। ये रसायन थे क्रमश: स्ट्रांशियम , बेरियम , कॉपर (नीला) और सोडियम (पीला)।
जब पोटाशियम क्लोरेट, बेरियम और स्ट्रांशियम नाइट्रेट जैसे रसायन के आविष्कार हुए, तब भारत में भी कई आतिशबाजी कंपनियां आई और पटाखों का उत्पादन तेजी से शुरू हुआ। इनमें स्टैंडर्ड फायरव‌र्क्स लिमिटेड, शिवकाशी एक ब्रांड नेम है। आज कोरिया, इंडोनेशिया, जापान के पटाखे भी आपको बाजार में मिल जाएंगे। बटरफ्लाई, स्पिनव्हील्स, फ्लॉवर पॉट्स इन खास आतिशबाजियों के नाम हैं। इनमें से कई ऐसे हैं, जिनको जलाने के लिए चिंगारी की नहीं, रिमोट की जरूरत पड़ती है।

[चर्बी से मोम तक]


प्राचीन सभ्यताओं में जानवरों के खाल की वसा और कीट पतंगों से मिले मोम को पेपर ट्यूब्स में डालकर मोमबत्ती बनाने के प्रमाण हैं। अमेरिकी कैंडल फिश नामक तैलीय मछली का उपयोग मोमबत्ती जैसी चीज बनाने के लिए करते थे। जब पैराफिन का आविष्कार हुआ, तब से चर्बी के प्रयोग की परंपरा बिल्कुल बंद हो गई।
कहते हैं मधुमक्खी के छत्ते से मोम बनाने की शुरुआत तेरहवीं सदी में हुई। इस पेशे में रहने वाले लोग घूम-घूमकर अपने कस्टमर की डिमांड के अनुसार चर्बी वाली या मधुमक्खी के छत्ते से मिले मोम से बनी मोमबत्ती बेचते थे। फिर स्टीरिक एसिड (मोम को कड़ा करने वाला केमिकल) और गुंथी हुई बातियों का इस्तेमाल होने के बाद मोमबत्ती ने नया स्वरूप ग्रहण किया। आज कई तरह की डिजाइनर मोमबत्तियां आ गई हैं। ऑयल कैंडल, फ्रेगरेंस वाली कैंडल और न जाने कितने प्रकार के कैंडल्स आप मार्केट में देख सकते हैं ।
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क्यों कि अब सब साधन मौजूद है चलिए दीवाली मानते है !



आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं !

ब्लॉग आर्काइव

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