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मंगलवार, 9 जून 2009

गाँव का नाम थियेटर मोर नाम हबीब







श्रद्धांजलि 'हबीब तनवीर'
हबीब तनवीर नहीं रहे। वे उम्र के छियासीवें साल में भी नाटक कर रहे थे।अभी पिछले ही दिनो उन्होंने भारत भवन में अपना नाटक चरनदास चोर किया था तथा उसमें भूमिका की थी।
वे इतने विख्यात थे कि सामान्य ज्ञान रखने वाला हर व्यक्ति उनके बारे में सब कुछ जानता रहा है। कौन नहीं जानता कि उनका जन्म रायपुर में हुआ था और तारीख थी 1923 के सितम्बर की पहली तारीख। उनके पिता हफीज मुहम्मद खान थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रायपुर के लॉरी मारिस हाई स्कूल में हुयी जहाँ से मैट्रिक पास करके आगे पढने के लिए नागपुर गये और 1944 में इक्कीस वर्ष की उम्र में मेरिस कालेज नागपुर से उन्होंने बीए पास किया। बाद में एमए करने के लिए वे अलीगढ गये जहाँ से एमए का पहला साल पास करने के बाद पढाई छूट गयी। वे नाटक लिखते थे, निर्देशन करते थे, उन्होंने शायरी भी की और अभिनय भी किया। यह सबकुछ उन्होंने अपने प्रदेश और देश के स्तर पर ही नहीं किया अपितु अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति भी अर्जित की। वे सम्मानों और पुरस्कारों के पीछे कभी नहीं दौड़े पर सम्मान उनके पास जाकर खुद को सम्मानित महसूस करते होंगे। 1969 में उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला तो 1972 से 1978 के दौरान वे देश के सर्वोच्च सदन राज्य सभा के लिए नामित रहे। 1983 में पद्मश्री मिली, 1996 में संगीत नाटक अकादमी की फैलोशिप मिली तो 2002 में पद्मभूषण मिला। 1982 में एडनवर्ग में आयोजित अर्न्तराष्ट्रीय ड्रामा फेस्टीबल में उनके नाटक 'चरनदास चोर' को पहला पुरस्कार मिला।
वे नाटककार के रूप में इतने मशहूर हुये कि अब कम ही लोग जानते हैं कि पेशावर से आये हुये हफीज मुहम्मद खान के बेटे हबीब अहमद खान ने शुरू में शायरी भी की और अपना उपनाम 'तनवीर' रख लिया जिसका मतलब होता है रौशनी या चमक। बाद में उनके कामों की जिस चमक से दुनिया रौशन हुयी उससे पता चलता है कि उन्होंने अपना नाम सही चुना था। कम ही लोगों को पता होगा कि 1945 में बम्बई में आल इन्डिया रेडियो में प्रोडयूसर हो गये, पर उनके उस बम्बई जो तब मुम्बई नहीं हुयी थी, जाने के पीछे आल इन्डिया रेडियो की नौकरी नहीं थी अपितु उनका आकर्षण अभिनय का क्षेत्र था। पहले उन्होंने वहाँ फिल्मों में गीत लिखे और कुछ फिल्मों में अभिनय किया। इसी दौरान उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया और वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ कर इप्टा ( इन्डियन पीपुल्स थियेटर एशोसियेशन)के सक्रिय सदस्य बन गये, पर जब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इप्टा के नेतृत्वकारी साथियाें को जेल जाना पड़ा तो उनसे इप्टा का कार्यभार सम्हालने के लिए कहा गया। ये दिन ही आज के हबीब तनवीर को हबीब तनवीर बनाने के दिन थे। कह सकते हैं कि उनके जीवन की यह एक अगली पाठशाला थी।
1954 में वे फिल्मी नगरी को अलविदा कह के दिल्ली आ गये और कदेसिया जैदी के हिन्दुस्तानी थियेटर में काम किया। इस दौरान उन्होंने चिल्ड्रन थियेटर के लिए बहुत काम किया और अनेक नाटक लिखे। इसी दौरान उनकी मुलाकात मोनिका मिश्रा से हुयी जिनसे उन्होंने बाद में विवाह किया। इस विवाह में ना तो पहले धर्म कभी बाधा बना और ना ही बाद में क्योंकि दोनों ही धर्म के नापाक बंधनों से मुक्त हो चुके थे। इसी दौरान उन्होंने गालिब की परंपरा के 18वीं सदी के कवि नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित नाटक 'आगरा बाजार' का निर्माण किया जिसने बाद में पूरी दूनिया में धूम मचायी। नाटक में उन्होंने जामियामिलिया के छात्रों और ओखला के स्थानीय लोगों के सहयोग और उनके लोकजीवन को सीधे उतार दिया। दुनिया के इतिहास में यह पहला प्रयोग था जिसका मंच सबसे बड़ा था क्योंकि यह नाटक स्थानीय बाजार में मंचित हुआ। सच तो यह है कि इसीकी सफलता के बाद उन्होंने अपने नाटकों में छत्तीसगढ के लोककलाकारों के सहयोग से नाटक करने को प्रोत्साहित किया जिसमें उनमें अपार सफलता मिली।
इस सफलता के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 1955 में जब वे कुल इकतीस साल के थे तब वे इंगलैंड गये जहाँ उन्होंने रायल एकेडमी आफ ड्रामटिक आर्ट में अभिनय और निर्देशन का प्रशिक्षण दिया। 1956 में उन्होंने यही काम ओल्ड विक थियेटर स्कूल के लिए किया। अगले दो साल उन्होंने पूरे यूरोप का दौरा करके विभिन्न स्थानों पर चल रहे नाटकों की गतिविधियों का अध्ययन किया। वे बर्लिन में लगभग अठारह माह रहे जहाँ उन्हें बर्तोल ब्रेख्त के नाटकों को देखने का अवसर मिला जो बर्नेलियर एन्सेम्बले के निर्देशन में खेले जा रहे थे। इन नाटकों ने हबीब तनवीर को पका दिया और वे अद्वित्तीय बन गये। स्थानीय मुहावरों का नाटकों में प्रयोग करना उन्होंने यहीं से सीखा जिसने उन्हें स्थानीय कलाकारों और उनकी भाषा के मुहावरों के प्रयोग के प्रति जागृत किया। यही कारण है कि उनके नाटक जडों के नाटक की तरह पहचाने गये जो अपनी सरलता और अंदाज में, प्रर्दशन और तकनीक में, तथा मजबूत प्रयोगशीलता में अनूठे रहे।
वतन की वापिसी के बाद उन्होंने नाटकों के लिए टीम जुटायी और प्रर्दशन प्रारंभ किये। 1958 में उन्होंने छत्तीसगढी में पहला नाटक 'मिट्टीी की गाड़ी' का निर्माण किया जो शूद्रक के संस्कृत नाटक 'मृच्छिकटकम ' का अनुवाद था। इसकी व्यापक सफलता ने उनकी नाटक कम्पनी 'नया थियेटर' की नींव डाली और 1959 में उन्होंने संयक्त मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में इसकी स्थापना की। 1970 से 1973 के दौरान उन्होंने पूरी तरह से अपना ध्यान लोक पर केन्द्रित किया और छत्तीसगढ में पुराने नाटकों के साथ इतने प्रयोग किये कि नाटकों के बहुत सारे साधन और तौर तरीकों में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर डाले। इसी दौरान उन्होंने पंडवानी गायकी के बारे में भी नाटकों के कई प्रयोग किये। इसी दौरान उन्होंने छत्तीसबढ के नाचा का प्रयोग करते हुये 'गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' की रचना की। बाद में शयाम बेनेगल ने स्मिता पाटिल और लालूराम को लेकर इस पर फिल्म भी बनायी थी।
हबीबजी प्रतिभाशाली थे, सक्षम थे, साहसी थे, प्रयोगधर्मी थे, क्रान्तिकारी थे। उनके 'चरणदास चोर' से लेकर, पोंगा पंडित, जिन लाहौर नहिं देख्या, कामदेव का सपना, बसंत रितु का अपना' जहरीली हवा, राजरक्त समेत अनेकानेक नाटकों में उनकी प्रतिभा दिखायी देती है जिसे दुनिया भर के लोगों ने पहचाना है। उन्होंने रिचर्ड एडिनबरो की फिल्म गांधी से लेकर दस से अधिक फिल्मों में काम किया है तो वहीं 2005 में संजय महर्षि और सुधन्वा देश पांडे ने उन पर एक डाकूमेंटरी बनायी जिसका नाम रखा ' गाँव का नाम थियेटर, मोर नाम हबीब'। यह टाइटिल उनके बारे में बहुत कुछ कह देता है, पर दुनिया की इस इतनी बड़ी सख्सियत के बारे में आप कुछ भी कह लीजिये हमेशा ही कुछ अनकहा छूट ही जाएगा |

मैनपुरी वासीयों का आप को अश्रुपूर्ण नमन |

2 टिप्‍पणियां:

  1. I don't want my blog to get publicity at this much big cost.

    We have lost such great talents that it will be very hard for the present and the future generations to fulfill the gap in the coming decades.

    My heartiest condolences.

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