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मंगलवार, 2 जून 2009

छत्तों पे अब नही दिखते नोशेरवां......

: गंगा दशहरा पर विशेष :








बरी का चोकोर टुकडा और बांस की बारीक़ तरतीब से काटी गयी दो सीकें जब पतंग बन कर आसमान में अटखेलियाँ करतीं हैं तो हर देखने वाले का सिर ख़ुद-व- ख़ुद ऊपर उठ जाता है.कहते हैं की पतंग का इजाद चीन में २३०० साल पहले हुआ था.चीन के एक दार्शनिक मो-दी ने पहली पतंग बना कर आसमान में छोडी थी.पतंग जापान.कोरिया.थाईलेंड.वर्मा और फ़िर हिन्दुस्थान की सरहद में दाखिल हुई.मैनपुरी में पतंग के शोकिन कुछ कम नही हैं.मैनपुरी की करहल रोड इनदिनों पतंग उडाने वालो से गुलज़ार दिखाई दे रही है. शहर में दशहरा पर पतंग उडाने का बरसों पुराना रिवाज़ है.जो आज भी चला आरहा है.एक जमाना था जब हार उम्र के लोग पतंग और डोर से भरे हुचकों से साथ छतों पर दिखयी देते थे.डोर.मांझा.कन्ने.सद्दा.खिंच और ढील...... पतंग बाज़ी के दोरान अक्सर ये शब्द दोहराए जाते थे.पेंच लड़ना...मांझा लूटना सब कुछ मजेदार सा लगता था.लगातार ९ पतंगों को काटने वाले को ''नोशेरवां'' कहा जाता था.ये नोशेरवां मोहल्ले की शान हुआ करते थे.पतंग उडाने के लिए लोग इंतज़ार करते थे. पेंच लड़ाये जायेंगे......फ़िर पतंगे कटेंगी....... नीचे बच्चे खुश ऊपर आसमान मस्त.एक साथ जब रंग बिरंगी पतंग आसमान में इठलाती हैं तो लगता है मैनपुरी के आसमान को जैसे किसी ने राजस्थानी लहंगा पहना दिया हो. आसमान के बीच से चमकती रोशनी शीशे की तरह नजर आती है.सब कुछ रोमांच सा लगता है.लेकिन इस वार का दशहरा कुछ फीका से नजर आ रहा है.करहल रोड पर पतंग की दुकान खोले फिरोज़ पहले जीतने खुश नजर नही आते.इनकी माने तो ''भाई! पतंग के शोकिन अब नही ''इसका वे कारण भी बताते हैं''लोग पहले से ज्यादा मशरूफ हो गएँ हैं.बड़े....रोज़गार के लिए भटक रहे बच्चों को छुट्टियो में इतना होमवर्क दिया जाने लगा है की वे पतंग जैसी चीजों के लिए वक़्त नहीं निकाल पाते. मैनपुरी शहर के पुराने पतंग बाज़ ६० साल के पुरषोत्तम लाल जिन्हें लोग लाला भी कहते हैं बताते है ''पतंग एक मनोरंजन का साधन था।इस बहने लोग छतों पे आकर पडोसिओं का हाल चाल भी लिया जाता था.इस आदत से घरों के बच्चे भी संबधों की एहमियत समझते थे......थोड़ा रुकते हुए पुरषोत्तम लाल चश्मा उतार कर एक लम्बी साँस के साथ कहते हैं ''सब कुछ बदल गया.........'' |
कुछ एसे ही विचार पूरानी मैनपुरी के चौथियाना निवासी ७३ वर्षीय श्री नंदन मिश्रा के भी है,"पहेले तो वो काटे - वो काटे की आवाज से हम समझ जाते थे की आज कोई आया मैदान में और हम भी अपनी पतंगे और चरखी ले छत पर आ जाते कि अब आ जा देखे किस में कितना हूनर है ? और फ़िर होती थी घंटो के हिसाब से पतंगबाजी | सब से बड़ा पतंगबाज वोही होता था जो न केवल अपने सामने वाले की पतंग काट ले बल्कि उसे अपनी डोर से उलझा के ले भी आए |" और फ़िर श्री मिश्रा भी इस बात पे अफ़सोस जताते है कि आज कल पतंगबाजी ख़तम होती जा रही है |

सच ही तो है आज कल कहाँ है एसे शौक्कीन पतंगबाजी के .............................कहाँ है वोह नोशेरवां....कहाँ है .....

एसा क्यों है कि हर खास और आम को आपस में जोड़ने वाली पतंग आज तनहा है , कोई उसका ताबेदार नहीं , उसकी खेर लेने वाले इतने कम क्यों होते जाते है ........................आख़िर क्यों ?

1 टिप्पणी:

  1. हिर्देश,
    निदा फाजली साहब ने ठीक ही लिखा है कि,
    "धुप में निकलो घटायो में नहा कर देखो .
    ज़िन्दगी क्या है , किताबो को हटा कर देखो |"

    आज कल की competition से भरी ज़िन्दगी में माँ - बाप बच्चो का बचपन भूलते जा रहे है! और फ़िर कंप्यूटर के ज़माने में बच्चे पतंग जैसी मामूली चीज़ का मोल क्या जाने ?
    वक़्त - वक़्त की बात है |

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